हिंदू धर्म में अपने प्रथा को मानने की स्वतंत्रता है। सभी समुदाय अपने-अपने अनुसार से ईश्वर का मनन चिंतन अथवा पूजन करते हैं। मैं कहता हूं ईश्वर ऐसा है। मेरे कहने से , अथवा किसी और के कहने से क्या होता है। दूसरे के प्रथा को आगे बढ़ाने के लिए अपनी प्रथा की कुर्बानी क्यों दें। धर्म की स्वतंत्रता यही है भक्त स्वयं विचार करेगा उसके ईष्ट का स्वरूप क्या हो? एक भक्त किसी दूसरे के कहने पर क्यों जाएगा, वह स्वयं विचार करेगा उसका भगवान कितना महान है?