अपना काम बनता, भाड़ में जाए जनता

कई राजनेता और सत्ता में बैठे लो अपने निजी स्वार्थ, लाभ और सत्ता के विस्तार पर अधिक ध्यान केंद्रित कर रहे हैं, जबकि जनता की वास्तविक समस्याओं और जरूरतों को नजरअंदाज कर रहे हैं। यह प्रवृत्ति राजनीति के नैतिक पतन और जनसेवा की मूल भावना के विपरीत है, जिसके कारण लोकतंत्र में गहरे संकट की स्थिति उत्पन्न हो रही है।

 

1. सत्ता का स्वार्थी उपयोग: आजकल की राजनीति में अक्सर देखा जाता है कि चुनाव जीतने के बाद राजनेता अपने वादों से मुकर जाते हैं या उन पर अमल करने की बजाय अपने व्यक्तिगत हितों पर ध्यान देते हैं। उनके एजेंडा में विकास और कल्याण की बजाय सत्ता में बने रहना और अपने समर्थकों के हितों को साधना प्रमुख हो जाता है। इस स्थिति में जनता का कल्याण एक गौण मुद्दा बन जाता है।

 

2. चुनावी वादे और असलियत: राजनीतिक दल चुनावों के दौरान जनता को बड़े-बड़े वादे करते हैं, लेकिन चुनाव जीतने के बाद उन वादों को पूरा करने की इच्छाशक्ति कम होती है। नीतियाँ और योजनाएँ अक्सर शॉर्ट-टर्म वोट-बैंक की राजनीति का हिस्सा बन जाती हैं, जिसमें दीर्घकालिक विकास और कल्याण का कोई ठोस दृष्टिकोण नहीं होता।

 

3. भ्रष्टाचार और सत्ता का दुरुपयोग: भ्रष्टाचार राजनीति का एक अभिन्न अंग बनता जा रहा है। जब नेता और सरकारी अधिकारी अपने निजी हितों के लिए जनता के धन और संसाधनों का दुरुपयोग करते हैं, तो यह स्पष्ट रूप से इस मानसिकता को दर्शाता है कि “अपना काम बनता, भाड़ में जाए जनता।” इसका नतीजा यह होता है कि विकास के लिए आवंटित धन सही स्थान पर नहीं पहुँचता, और इससे समाज में असमानता और गरीबी बढ़ती है।

 

4. जनसेवा के मूल्यों का पतन: राजनीति का मूल उद्देश्य जनता की सेवा और समाज के कल्याण के लिए काम करना होता है। लेकिन आजकल राजनीति में शामिल लोगों के लिए यह सेवा केवल एक औपचारिकता या दिखावे का माध्यम बन गई है। जनसेवा की भावना की बजाय व्यक्तिगत लाभ, पारिवारिक राजनीतिक साम्राज्य, और निजी प्रतिष्ठा को अधिक महत्व दिया जाने लगा है।

 

5. नीतिगत असमानता और विभाजन की राजनीति: राजनीति में जनकल्याण और समावेशी विकास की बजाय ध्रुवीकरण और विभाजन की राजनीति बढ़ रही है। जाति, धर्म, क्षेत्रीयता आदि के आधार पर समाज को बांटकर, राजनेता केवल अपना काम साधने में लगे रहते हैं। इससे समाज में विघटन बढ़ता है और असल मुद्दों पर ध्यान देने की बजाय हाशिये के मुद्दे हावी हो जाते हैं।

 

निष्कर्ष: “अपना काम बनता, भाड़ में जाए जनता” का सिद्धांत आज की राजनीति में गहरे तक पैठ बना चुका है, और यह लोकतंत्र के लिए एक गंभीर खतरा है। जब तक राजनेताओं और नीति-निर्माताओं की प्राथमिकता जनता के हितों से हटकर निजी लाभ और सत्ता का विस्तार रहेगा, तब तक समाज का संपूर्ण विकास संभव नहीं है। यह जरूरी है कि राजनीति को पुनः जनसेवा और जिम्मेदारी के आदर्शों की ओर मोड़ा जाए, ताकि लोकतांत्रिक व्यवस्थाएं अपने वास्तविक उद्देश्य को पूरा कर सकें।

 

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