ईश्वर भी गुलाम

संसार में कोई ऐसा भी भक्त हुआ करते हैं जो कहते हैं ईश्वर मेरा गुलाम है। ऐसा कहने वाले स्वयं सिद्ध करते हैं कि वह मूर्ख है। जैसे छोटा बच्चा छुपा-छुपी खेल में दूर जाकर अपनी आंखें बंद कर लेता है और कहता है अब मुझे ढूंढ लो। छोटे बच्चों को यह पता नहीं होता की आंखें तो मैंने बंद कर रखी है। जिसे ढूंढना है उसकी आंखें तो खुली है।

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कोई एक कहता है ईश्वर उसका गुलाम हो गया है। अब वह ईश्वर किसी और की बात कभी नहीं सुनेगा। उस ईश्वर ने यह लिखित में साइन किया है ।  वह दूसरे किसी भक्त को पैदा भी नहीं करेगा। ईश्वर से मिलने का एकमात्र माध्यम सिर्फ और सिर्फ वही है। इतिहास उठाकर देखें तो पता चलता है। अपने आप को ईश्वर मानने वाले कितने आए और कितने चले गए। आज भी अनेंक ऐसे पैसे और धन के लालची लोग हैं। मानों जिन्होंने ईश्वर को अपना गुलाम बना रखा हो।

जाने अनजाने ऐसे लोग ईश्वर के सामने भयंकर कोप के भागी होते हैं। कोई एक राक्षस भगवान का प्रिय भक्त बन जाए, यह कोई बड़ा आश्चर्य नहीं है। क्योंकि कहते हैं जब उस ईश्वर की कृपा बरसती है तो रेगिस्तान में भी फूल खिलते हैं। एक राक्षस इंसान बन जाए यह कोई बड़ा बात नहीं हो सकता। परंतु वैसा व्यक्ति अपने आप को ईश्वर का सबसे बड़ा ठेकेदार मान ले यह उसकी बहुत बड़ी मूर्खता है।



सनातन इतिहास में बड़े-बड़े जादूगर
प्राचीन कथा उल्लेख में अनेंक दृष्टांत मिलते हैं। एक से बड़े एक दिखावा करने वाले भक्त जादूगर हुए। ऐसे लोगों का समय बहुत ज्यादा दिन तक नहीं टिकता। मुझे यहां पर एक कथा याद आ रहा है।

वह कथा कुछ यूं है। एक गुरु के पास चार अंधे शिष्य शिक्षा ग्रहण कर रहे थे। अचानक एक दिन जंगल से चलकर एक हाथी आश्रम के निकट आया। उन शिष्यों ने न कभी हाथी के बारे में ना सुना था और न जाना था।  गुरु ने उन चारों शिष्यों को उस हाथी के पीछे लगा दिया। गुरु जी ने कहा एक नया जीव आया हुआ है। मैं समझ नहीं पा रहा हूं यह नया जानवर कौन सा है। आप चारों जाओ और  यह बताओ कि वह कौन सा जानवर है।

चारों शिष्य उस हाथी के करीब गए । चारों शिष्यों ने अपनें कोशिश से यह अनुभव किया कि वह जानवर कौन सा है और कैसा है। हाथी जंगल से आया था और जंगल में चला गया। गुरु जी ने उन चारों शिष्यों को वापस पास बुलाया। चारों शिष्य से पूछा अब आप लोग यह बताओ कि यह आया हुआ जानवर कौन सा था।

पहले शिष्य का कथन
एक शिष्य खड़ा हुआ। इसने हाथी का पैर छूकर अनुभव किया था। उसने कहा गुरुदेव जानवर का नाम क्या था यह तो मैं नहीं बता सकता। परंतु वह जानवर एक खंभे के जैसा था।  गुरुदेव आप चाहे तो इसका नाम खंभासुर रख सकते हैं।

दूसरे शिष्य का कथन
दूसरा शिष्य तुरंत खड़ा हुआ। इसने उस हाथी का सूंड छूकर अनुभव किया था। इसने तुरंत बोला नहीं गुरुदेव वह जानवर एक केले के थंब जैसा था।  उस जानवर का नाम तो मुझे भी नहीं पता परंतु आप चाहे तो उसका नाम थंबासूर रख सकते हैं।

तीसरे शिष्य का कथन
तीसरा शिष्य खड़ा होकर बोला। गुरुदेव मेरे ख्याल से यह दोनों हीं गलत बोल रहे हैं। इस शिष्य ने हाथी का कान छूकर अनुभव किया था। इसने कहा गुरुदेव मैंने जो अनुभव किया है उसके मुताबिक वह जानवर कोई बड़े पेड़ के किसी बड़े पत्ते की तरह था। मेरे अनुसार से उस जानवर का नाम पत्तासुर होना चाहिए।

चौथे शिष्य का कथन
चौथा शिष्य खड़ा हुआ और सभीं की बातों को काटकर बोला। गुरुदेव यह सभी के सभी मूर्ख हैं। मेरा अनुभव सबसे भरोसेमंद है। मैं साबित करुंगा कि वास्तव में वह जानवर कैसा था। इस चौथे शिष्य ने हाथी के पेट को छूकर अनुभव किया था। इसने कहा गुरुदेव वह जानवर एक बहुत बड़े दीवार के जैसा था। उस जानवर का चमड़ा बहुत मोटा था। ऐसा लगता था मानो वह दीवार से भी कहीं गुना मजबूत हो। यह तीनों जो कहानी सुना रहे हैं वह बिल्कुल झूठ है। मैं जो बोल रहा हूं वही सत्य है।

गुरुदेव उन चारों की बात सुनकर आगे बोले। मैं तुम सबको कुछ दिन का समय देता हूं। तुम चारों यह निश्चित करो कि वह जानवर कैसा था। चारों शिष्य उस जानवर के लिए रोज आपस में बहस करते, लड़ाई करते। चारों को अपनें अनुभव पर एकदम दृढ़ता था । उन सभी का मानना था, वह जो बोल रहे हैं वहीं सत्य है। मैं ही एक सही हूं, शेष यह तीनों गलत बोल रहे हैं। गुरुदेव रोज उनकी बातों को टाल दिया करते थे। इधर चारों शिष्यों की लड़ाई बढ़ती जा रही थी। चारों शिष्यों ने सब भक्ति नियम क्रिया को मानों ताक पर रख दिया।

चारों शिष्य दिनभर आपस में इसी बात को लेकर लड़ते रहते थे। चारों में से कोई भी एक मानने को तैयार नहीं था। वैसे भी चारों का अनुभव अलग-अलग था। चारों के पास अपना अनुभव था। वह अपनें अनुभव के सामने वह दूसरे की बात क्यों मानें। एक दिन चारों शिष्यों में लड़ाई इतना बढ़ गया की सभीं एक दूसरे को जान से मारने पर उतावले हो गए।

जब झगड़ा बहुत बढ़ा तो गुरुजी बीच में आए। गुरुदेव ने कहा तुम सभी सिर्फ आंखों से ही नहीं दिमाग से भी अंधे हो। मैं बताता हूं उस जीव की वास्तविकता क्या है? तुम चारों ने कोशिश की उस जानवर को समझने की। परंतु वह जानवर तुम्हारे सोच और चिंतन से भी विशाल था। तुम चारों ने अपना जो अनुभव किया वह भी सत्य है। परंतु उस जानवर की सत्यता तुम्हारे चारों के अनुभव से कहीं अलग है।

इसके बाद गुरुदेव  ने अपने चारों शिष्यों को उस हाथी के बारे में बताया। चार शिष्यों ने हाथी का वृहद रूप नहीं देखा था। जब गुरुदेव ने हाथी की वास्तविकता बताई , तो चारों शिष्य अपनी मूर्खता को लेकर शर्मिंदा हुए। उन्हें यह अभाष हुआ कि हम मुर्ख बनकर आपस में लड़ रहे थे। गुरुदेव सब जानते थे और हमारी मूर्खता पर रोज हंस रहे थे।

गुरुदेव ने बताया की हाथी कितना विशाल है। तुम सब आंखों से अंधे हो। तुम्हारे पास यह क्षमता नहीं है कि एक साथ में संपूर्ण हाथी को देख सको। तुम सभीं अनुभव को मना भी जा सकता है, जाना भी जा सकता है परंतु वास्तविकता बिल्कुल अलग है।


ईश्वर किसी एक का नहीं
गुरुदेव ने इसके बाद बताया कि वह ईश्वर भी उस हाथी के जैसा विशाल है। उसकी भक्ति करने वाले भक्त तुम सभीं के जैसा मानों अंधे है। सभीं भक्त मिलकर भी एक साथ उस संपूर्ण ईश्वर के स्वरूप को नहीं देख सकते। कोई एक उस ईश्वर की पूर्ण रूप से व्याख्या कैसे कर सकता है। जब उस ईश्वर की कोई एक व्याख्या नहीं कर सकता फिर वह ईश्वर को गुलाम कैसे बना सकता है।

वह ईश्वर किसी एक को अपना ठेकेदार भी नहीं बना सकता। जो गलती से उस ईश्वर का अपने आप को ठेकेदार मान रखा हो । यह उसकी मूर्खता नहीं तो और क्या है। वह ईश्वर न तो किसी को गुलाम बनाता है और ना हीं वह ईश्वर किसी का गुलाम बन सकता है यह स्पष्ट रूप से समझना होगा।

वह ईश्वर हम इंसानों के कल्पनाओं से कहीं विशाल है। वास्तविकता में तो हम एक अंश भी नहीं जान सकते। ऐसा नहीं है की ईश्वर के बारे में चिंतन नहीं करना चाहिए। आप करो ईश्वर की चिंतन करो, आप स्वतंत्र हो। आप ईश्वर को दूसरे का भरोसे मत छोड़ो। आप स्वयं अनुभव करो, वह ईश्वर कैसा है। उस ईश्वर का वास्तविक स्वरूप कैसा है।

दूसरे के द्वारा दिया गया ईश्वर प्राप्ति के विधि के ऊपर आप चिंतन चर्चा मत करो। जिस रास्ते पर चल रहे हो चलते रहो। परंतु चिंतन स्वयं से स्वयं के रास्ते पर करो। आप स्वयं अपने भावनाओं से उसकी खोज करो। ईश्वर के बारे में जो व्यक्त करके गया वह महान था, इसमें कोई शंका नहीं है। क्योंकि वह ईश्वर का अनुभवी रहा है। परंतु ईश्वर के रास्ते में उसका अनुभव तुम्हारे किसी काम नहीं आएगा। अपनें आप को ज्ञानी मान लेने से कोई ज्ञानी नहीं हो जाता। ज्ञान तो वही है जो वास्तविकता के हर एक कसौटी पर खड़ा उतरता हो।


संक्षेप में इस लेख का विश्लेषण
ईश्वर की खोज व्यक्तिगत और आंतरिक अनुभव से जुड़ी है। दूसरों के अनुभव महत्वपूर्ण हो सकते हैं, लेकिन वे हमारी आत्मिक यात्रा का विकल्प नहीं हैं। हमें अपनें भीतर से ईश्वर का अनुभव करना चाहिए, क्योंकि केवल व्यक्तिगत अन्वेषण ही वास्तविकता को प्रकट कर सकता है। शेष सभीं कथा के समान है। आनंद तो मिलेगा परंतु ईश्वर भक्ति बहुत दूर होगा।

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